अगली सुबह...
सभी लोग डाइनिंग एरिया में बैठकर नाश्ता कर रहे थे। जब दादाजी ने शिवांश को वहाँ नहीं देखा तो उन्होंने शोभा से पूछा, "बहू, शिवांश कहाँ है?"
"पापा, वह सुबह-सुबह ही ऑफिस के लिए निकल गया," शोभा ने जवाब दिया और उन्हें नाश्ता परोसने लगी। दादाजी ने सिर्फ सिर हिलाया। फिर कुछ सोचकर उन्होंने तारा के बारे में पूछा, तो शोभा बोली, "पापा, वो अपने कमरे में है। मैंने उसे उसके कमरे में ही नाश्ता दे दिया था।"
तभी सुरेखा ने अपनी कैंची जैसी जुबान से कहा, "हाँ-हाँ, अब तो वो क्वीन विक्टोरिया बन गई है, अब उसे नाश्ता, खाना, सब कुछ कमरे में ही मिलेगा।"
अजय ने सुरेखा की प्लेट में जलेबी रखते हुए कहा, "अरे सुरेखा, ये जलेबी खाओ। खाने से दो फायदे होंगे, एक तो तुम्हारा मुँह बंद रहेगा और दूसरा तुम्हारी ज़ुबान थोड़ी मीठी हो जाएगी।"
अजय के इस ताने पर सुरेखा उसे घूरने लगी, और रोहित और रिया सिर नीचे करके अपनी हँसी रोकने लगे।
नाश्ते के बाद रोहित और रिया भी ऑफिस के लिए निकल गए।
आर.एस. एम्पायर कई क्षेत्रों में फैला हुआ था, लेकिन मैन्युफैक्चरिंग, कंस्ट्रक्शन और फैशन इंडस्ट्री उसके सबसे प्रसिद्ध व्यवसाय थे।
रोहित मुंबई की फैक्ट्रियों को संभालता था और रिया एक फैशन डिज़ाइनर थी, जो फैशन कंपनी आर.एस. एम्पायर में शिवांश की मदद करती थी।
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आर.एस. ग्रुप
शिवांश अपने केबिन में अपनी आरामदायक कुर्सी पर सिर टिकाए बैठा था। उसकी आँखें बंद थीं और दो दिन पहले जो कुछ हुआ था, वह उसके ज़हन में घूम रहा था।
एक 27 वर्षीय युवक उसके सामने हाथ जोड़कर खड़ा था – ये था उसका सहायक प्रवीण कुमार।
प्रवीण भी दिखने में काफी हैंडसम था। उसका चौकोर चेहरा और बड़ी-बड़ी आँखें उसे अलग बनाती थीं। जिम में पसीना बहाकर बनाई गई उसकी मस्कुलर बॉडी उसे असिस्टेंट कम बॉडीगार्ड जैसा दिखाती थी। इसलिए ऑफिस की कई लड़कियाँ उसे पटाने की कोशिश करती थीं, लेकिन वह सिर्फ शिवांश और अपने काम से मतलब रखता था।
पर शिवांश और प्रवीण के बीच सिर्फ बॉस-असिस्टेंट का रिश्ता नहीं था — वो दोस्त भी थे। प्रवीण का पिता आलोक का ड्राइवर था, और जब आलोक सबके साथ रहता था, तभी से शिवांश और प्रवीण की दोस्ती हो गई थी।
कुछ साल पहले एक एक्सीडेंट में प्रवीण के पिता की मौत हो गई थी, तब से वह हमेशा शिवांश के साथ रहता है और घरवाले भी उसे अपना बेटा मानते हैं।
प्रवीण पिछले दो दिन से मुंबई में नहीं था। वह उस काम से बाहर गया था, जिसके लिए शिवांश ने शादी की थी। अब वो वापस लौटा था।
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फ्लैशबैक
प्रवीण ने घबराए हुए स्वर में कहा, “सर... वो... आलोक शेरगिल ‘आशा कुंज’ उस औरत के नाम कर रहे हैं।”
ये सुनते ही शिवांश का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया।
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अचानक केबिन का दरवाज़ा फिर खुला और आलोक अंदर आया — “अगर चाहो तो मैं वो घर शोभा के नाम कर सकता हूँ।”
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"लेकिन तुम्हें शादी करनी होगी, उस लड़की से जिसे मैं बताऊँगा — वो भी मेरी शर्तों पर।"
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शिवांश ने शांत लेकिन सख़्त स्वर में कहा, "ठीक है, लेकिन सिर्फ दो शर्तें मानूँगा। इसलिए जो कहो, सोच-समझकर कहना।"
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आगे क्या होगा?
आलोक कौन सी दो शर्तें रखेगा?
शिवांश के मन में क्या चल रहा है?
क्या शोभा कभी तारा को अपनी बहू के रूप में स्वीकारेगी?
जानने के लिए कहानी के साथ बने रहिए...
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अध्याय का आनंद लीजिए!!
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कुछ देर सोचने के बाद आलोक ने कहा, "ठीक है, मैं मानता हूँ। मेरी पहली शर्त है कि तुम इस शादी से कभी बाहर नहीं निकलोगे। मतलब तुम उस लड़की को कभी तलाक नहीं दोगे और दूसरी शर्त ये है कि शादी के बाद तुम उसे कभी छोड़ोगे नहीं। मतलब तुम उसे कभी घर से निकालने को नहीं कहोगे।"
आलोक की ये शर्तें सुनकर शिवांश और प्रवीण दोनों के चेहरे पर अलग-अलग भाव थे। शिवांश के चेहरे पर गुस्सा था और प्रवीण के चेहरे पर सवाल। सवाल ये था कि क्या आलोक सच में उस लड़की को लेकर इतना चिंतित है या उसके मन में कोई और मंशा है। और शिवांश के चेहरे पर जो गुस्सा था, वो इस बात का था कि अब न तो वह इस शादी से छुटकारा पा सकता था और न ही उस लड़की को घर से निकाल कर अपने परिवार से दूर रख सकता था।
यही सोचते हुए, शिवांश के मन में उस लड़की यानी तारा के लिए नफरत पनपने लगी।
फ्लैशबैक समाप्त
उन सारी बातों को सोचते हुए, शिवांश ने अपनी आँखें खोलीं। उसकी आँखें गुस्से से लाल थीं। उसने अपने दोनों हाथ मेज पर रखे और उस अनुबंध के कागज को घुमाने लगा, जिस पर आलोक ने अपनी शर्तें लिखी थीं और शिवांश से हस्ताक्षर करवाए थे।
कागज़ को देखते हुए उसने खुद से नफरत भरे लहज़े में कहा,
"आलोक शेरगिल, तुमने क्या सोचा कि इन दो शर्तों को थोपकर तुम जीत जाओगे? लेकिन तुम भूल गए कि मेरा नाम शिवांश रंधावा है। अब मैं देखता हूँ कि तुम्हारे द्वारा भेजी गई वो लड़की कितनी हिम्मत रखती है, कितनी देर तक मेरे जुल्म सह पाती है। अगर मैंने उसकी ज़िंदगी बर्बाद न की, तो मेरा नाम भी शिवांश रंधावा नहीं।"
फिर उसने ऊपर देखा और प्रवीण को देखा, जो चुपचाप उसे देख रहा था और उसकी बातें सुन रहा था।
"क्या उस लड़की के बारे में कुछ पता चला?"
प्रवीण जानता था कि शिवांश तारा की बात कर रहा है। उसने अपनी नज़रें नीची कर लीं और बोला,
"सर, अभी तक हमें ये पता नहीं चला कि वो कौन है, आलोक शेरगिल से उसकी मुलाकात कहाँ हुई या उनका रिश्ता क्या है। आलोक शेरगिल ने उसकी सारी जानकारी छुपा रखी है।"
तब शिवांश ने खतरनाक मुस्कान के साथ कहा,
"कोई बात नहीं, अब तो वो मेरे घर आ चुकी है, धीरे-धीरे सब पता चल ही जाएगा।"
फिर प्रवीण ने उस अनुबंध पत्र को मेज से हटा दिया और दूसरी फाइल रख दी। उस कागज को देखते ही शिवांश की खतरनाक मुस्कान गायब हो गई और एक छोटी सी सच्ची मुस्कान उसके चेहरे पर आ गई।
वो 'आशा कुंज' के कागज थे। जिसमें साफ़ लिखा था कि अब आशा कुंज शोभा के नाम है।
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शाम को...
जब शिवांश और प्रवीण घर लौटे, तो दादाजी प्रवीण को देखकर खुश हो गए और बोले,
"अरे प्रवीण बेटे, तू कब आया?"
प्रवीण ने दादाजी के पैर छुए और बोला,
"दादाजी, मैं सुबह ही आया हूँ।"
"और आते ही ऑफिस चला गया, घर आने की फुर्सत नहीं मिली," शोभा ने थोड़ी नाराज़गी से कहा।
तब प्रवीण ने उन्हें गले लगाते हुए कहा,
"सॉरी शोभा माँ, ऑफिस में बहुत काम था, इसलिए जल्दी निकलना पड़ा।"
"हीरे की कसम प्रवीण, तू बहुत डेडिकेटेड है। एक बार के लिए ऑफिस शिवांश के बिना चल सकता है, लेकिन तेरे बिना नहीं," सुरेखा बोलीं और सब मुस्कुरा दिए।
फिर शिवांश ने वो घर के कागज़ शोभा के हाथ में दे दिए। शोभा ने एक बार शिवांश की ओर देखा और फिर उन कागजों की ओर।
कागज पर लिखी बातें पढ़कर शोभा की आँखें नम हो गईं।
रिषिधर जी ने पूछा,
"बहू, ये कागज़ क्या हैं?"
कुछ कहने की बजाय शोभा ने वो कागज़ रिषिधर जी को दे दिए और शिवांश को गले लगा लिया। जब रिषिधर जी ने उन कागज़ों को देखा, तो उन्हें भी समझ आ गया कि शिवांश ने ये शादी क्यों की।
उन्होंने कहा,
"तूने ये शादी सिर्फ इस घर के लिए की, शिवांश। तुझे ऐसा नहीं करना चाहिए था।"
"ये सिर्फ घर नहीं है, दादाजी। ये आपका और दादीजी का सपना है, चाचाजी-चाचीजी और माँ की ज़िंदगी है, और हम सबका बचपन है। इसे पाने के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूँ।"
शिवांश की बातों से दादाजी की आँखें भी नम हो गईं और अजय व सुरेखा ने एक-दूसरे को देखा और हल्की सी मुस्कान दी।
फिर सुरेखा की वही कड़वी जुबान शुरू हो गई,
"अच्छा शिवांश, मान लिया कि ये घर बहुत कीमती है, लेकिन उस लड़की से शादी करने की क्या ज़रूरत थी? अब तो वो हमारे गले पड़ गई है जिंदगी भर के लिए। न निगली जाए, न उगली जाए।"
"तो क्या चाचीजी, इतनी चिंता करने की क्या ज़रूरत है, उसे सिर से उतारकर पैरों के नीचे रख दो। ये शादी एक सौदा है, एक डील। वो इस घर की बहू नहीं है, मेरी पत्नी भी नहीं। उसकी हैसियत सिर्फ एक नौकरानी की है। बस समझो कि अब एक परमानेंट नौकरानी इस घर में आ गई है।"
शिवांश ने ये सब बहुत शांत स्वर में कहा और अपने कमरे की ओर बढ़ गया।
उसकी बातें सुनकर सब एक-दूसरे को देखने लगे, लेकिन सुरेखा के चेहरे पर शैतानी मुस्कान फैल गई।
शोभा ने गेस्ट रूम की ओर देखा, जिसका दरवाजा थोड़ा खुला था।
उसे लगा कि शायद तारा ने शिवांश की बातें सुन ली हों — और उसका शक सही निकला।
तारा बिस्तर पर बैठी सब कुछ सुन रही थी। शिवांश की कड़वी बातें उसके दिल में तीरों की तरह चुभ रही थीं, और उसके आंसू उन घावों की तरह बह रहे थे।
उसने खुद से दर्द भरे स्वर में कहा,
"परमानेंट नौकरानी… अच्छा नाम दिया। चलो तारा, अब तुम्हें एक और नया नाम मिल गया।"
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